Ram lakshman parshuram samvad: NCERT Class 10 Hindi Kshitiz Chapter 2

Ram lakshman parshuram samvad: NCERT Class 10 Hindi Kshitiz Chapter 2
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Embarking on an epic journey through the ancient tales of valor and wisdom, the Ram Lakshman Parshuram Samvad in Class 10 Hindi, invites you to witness a profound dialogue that has been enlightening young minds for generations. When you step into the world of Chapter 2, it's like walking into a time where every conversation has layers of meaning and every character embodies a profound moral lesson.

This isn't just a story; it's a pivotal moment where the calm and composed Ram, the loyal Lakshman, and the formidable Parshuram come face-to-face in a dense Indian forest. The राम लक्ष्मण परशुराम संवाद is a powerful part of the Hindi syllabus that brings forth not just a face-off but a confluence of dharma (duty), artha (meaning), and karma (action). The Bhavarth or the essence of this dialogue goes beyond the mere words, offering students, teachers, and parents a chance to reflect on the profound philosophies of life.

As you dive deep into the संवाद and its Prashn Uttars (questions and answers), each interaction between the characters is a learning opportunity, a chance to question and to understand the delicate balance of strength and humility. The समवाद is carefully crafted to not only enrich the student's knowledge for exams but also to instill timeless values.

So, to every curious student, every guiding teacher, and every supportive parent, the Ram Lakshman Parshuram Samvad in Class 10 Hindi is not just a chapter to be studied; it's an experience to be lived. It's an educational journey that connects the heart and mind, turning the Class 10 Hindi syllabus into a canvas of life's great lessons. Let's explore this chapter together and unearth the wisdom that has been guiding learners through life's many battles.

अध्याय-2: राम लक्ष्मण परशुराम संवाद

सारांश 

राम लक्ष्मण परशुराम संवाद भावार्थ

नाथ संभुधनु भंजनिहारा, होइहि केउ एक दास तुम्हारा।।

आयेसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिकरनी करि करिअ लराई।।

सुनहु राम जेहि सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥

सुनि मुनिबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अवमाने॥

बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥

एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥

रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।

धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार।।

 

अर्थ - परशुराम के क्रोध को देखकर श्रीराम बोले - हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोडऩे वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते। यह सुनकर मुनि क्रोधित होकर बोले की सेवक वह होता है जो सेवा करे, शत्रु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। परशुराम के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और उनका अपमान करते हुए बोले- बचपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड़ डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी क्रोधित होकर कहने लगे - अरे राजपुत्र! काल के वश में होकर भी तुझे बोलने में कुछ होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?।

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।

का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू।।

बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानहि मोह।।

बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही।।

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।

सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर।।


अर्थ - लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोड़ने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था। परन्तु यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ। अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख। अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है।

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।

इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी।।

सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।

बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें।।

कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा।।

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।

सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गंभीर।।


अर्थ - लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर आप अपने को बड़ा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी दिखाते हैं। फूँक से पहाड़ उड़ाना चाहते हैं। यहाँ कोई कुम्हड़े की बतिया (बहुत छोटा फल) नहीं है, जो तर्जनी (अंगूठे की पास की) अँगुली को देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ अभिमान सहित कहा था। भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो- इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती है। क्योंकि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है, इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पड़ना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं। इन्हें देखकर मैंने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले।

कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।।

भानु बंस राकेस कलंकू। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।

काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।।

तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा।।

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।।

अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।

नहिं संतोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू।।

बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।

बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु।।


अर्थ - हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलंक है। यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है। अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं देना। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो। लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है। इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते। शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का प्रदर्शन करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं।

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।।

सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।

बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।।

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।

उतर देत छोड़उँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।।

न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरे।।

गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ।।


अर्थ - आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया और बोले - अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़वा बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है। विश्वामित्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते। परशुरामजी बोले - तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने- उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे प्रेम)से, नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता। विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा - परशुराम को हरा ही हरा सूझ रहा है (अर्थात सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्री राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं), किन्तु यह फौलाद की बनी हुई खाँड़ है, रस की खाँड़ नहीं है जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है, मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा।।

माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें।।

सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।

भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही।।

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहि के बा़ढ़े।।

अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे।।

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।



अर्थ - लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके प्रेम को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है। वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ। लक्ष्मणजी के कड़वे वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। लक्ष्मणजी ने कहा- हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ। आपको कभी रणधीर बलवान्‌ वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर 'अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया। लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचंद्रजी जल के समान शांत करने वाले वचन बोले।


 

Class 10 hindi chapter 2 question answer

प्रश्न-अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 14-15)

Ram Lakshman Parshuram samvad question answers

प्रश्न 1 परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिए कौन-कौन से तर्क दिए?

उत्तर- परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने पर निम्नलिखित तर्क दिए-

1.   हमें तो यह असाधारण शिव धुनष साधारण धनुष की भाँति लगा।

2.   श्री राम को तो ये धनुष, नए धनुष के समान लगा।

3.   श्री राम ने इसे तोड़ा नहीं बस उनके छूते ही धनुष स्वत: टूट गया।

4.   इस धनुष को तोड़ते हुए उन्होंने किसी लाभ व हानि के विषय में नहीं सोचा था।

5.   उन्होंने ऐसे अनेक धनुषों को बालपन में यूँ ही तोड़ दिया था। इसलिए यही सोचकर उनसे यह कार्य हो गया

प्रश्न 2 परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रतिक्रियाएँ हुईं उनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विशेषताएँ अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर- परशुराम के क्रोध करने पर श्री राम ने धीरज से काम लिया। उन्होंने नम्रता पूर्ण वचनों का सहारा लेकर परशुराम के क्रोध को शांत करने का प्रयास किया। परशुराम जी क्रोधी स्वभाव के थे। श्री राम उनके क्रोध पर शीतल जल के समान शब्दों व आचरण का आश्रय ले रहे थे। यही कारण था कि उन्होंने स्वयं को उनका सेवक बताया व उनसे अपने लिए आज्ञा करने का निवेदन किया। उनकी भाषा अत्यंत कोमल व मीठी थी और परशुराम के क्रोधित होने पर भी वह अपनी कोमलता को नहीं छोड़ते थे। इसके विपरीत लक्ष्मण परशुराम की भाँति ही क्रोधी स्वभाव के हैं। निडरता तो जैसे उनके स्वभाव में कूट-कूट कर भरी थी। इसलिए परशुराम का फरसा व क्रोध उनमें भय उत्पन्न नहीं कर पाता। लक्ष्मण परशुराम जी के साथ व्यंग्यपूर्ण वचनों का सहारा लेकर अपनी बात को उनके समक्ष प्रस्तुत करते हैं। तनिक भी इस बात की परवाह किए बिना कि परशुराम कहीं और क्रोधित न हो जाएँ। वे परशुराम के क्रोध को न्यायपूर्ण नहीं मानते। इसलिए परशुराम के अन्याय के विरोध में खड़े हो जाते हैं। जहाँ राम, विनम्र, धैर्यवान, मृदुभाषी व बुद्धिमान व्यक्ति हैं। वहीं दूसरी और लक्ष्मण निडर, साहसी, क्रोधी तथा अन्याय विरोधी स्वभाव के हैं। ये दोनों गुण इन्हें अपने-अपने स्थान पर उच्च स्थान प्राप्त करवाते हैं।

प्रश्न 3 लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में लिखिए।

उत्तर- लक्ष्मण (मुस्कराते हुए)- अरे वाह! मुनियों में श्रेष्ठ, आप परशुराम जी, क्या अपने आप को बहुत बड़ा योद्धा समझते हैं? आप हैं क्या? बार-बार अपनी कुल्हाड़ी क्यों दिखाते हैं, मुझे? आप अपनी फूँक से पहाड़ उड़ाने की कोशिश करना चाहते हैं क्या?

परशुराम (गुस्से में भरकर)- तुम्हें तो ........।

लक्ष्मण (व्यंग्य भाव से)- बोलो, बोलो (कौन परवाह करता है, आपकी। मैं कुम्हड़े का फूल नहीं हूँ जो आपकी तर्जनी देख सूख जाऊँगा। मैंने तो आपके फरसे और धनुष-बाण को देखा था। समझा था, आप कोई क्षत्रिय है। इसीलिए अभिमानपूर्वक मैंने कुछ कह दिया था आपसे।

परशुराम (गुस्से से लाल होते हुए)- अरे, तुम ........।

लक्ष्मण (डरने का अभिनय करते हुए)- अरे, अरे! आप तो ब्राहमण हैं। आपके गले में तो यज्ञोपवीत भी है। गलती हो गई मुझ से। क्षमा’ करें मुझे आप। हमारे वंश में देवता, ब्राह्मण, भक्त और गौ के प्रति कभी वीरता नहीं दिखाई जाती।

परशुराम (गुस्से से पूछते हुए)- तुम तो ........।

लक्ष्मण- इन्हें मारने से पाप लगता है... और यदि इनसे लड़कर हार जाएं तो अपयश मिलता है। ब्राहमण देवता..... यदि आप मुझे मारेंगे, तो भी मैं आप के पैरों में ही पडूँगा। अरे मुनिवर, आपकी तो बात ही अनूठी है, आप का एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है... तो फिर बताइए कि आपने व्यर्थ ही ये धनुष-बाण और पारसा क्यों धारण कर रखा है? क्या जरूरत है आपको इन सब की? मैंने आपके इन अस्त्र-शस्त्रों को देखकर आपसे जो उल्टा-सीधा कह दिया है कृपया उसके लिए मुझे माफ कर दीजिए। हे महामुनि मुझे क्षमा कर दीजिए।

प्रश्न 4 परशुराम ने अपने विषय में सभा में क्या-क्या कहा, निम्न पद्यांश के आधार पर लिखिए-

बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्वबिदित क्षत्रियकुल द्रोही।।

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही।।

सहसबाहुभुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा||

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।

गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर||

उत्तर- परशुराम ने अपने विषय में ये कहा कि वे बाल ब्रह्मचारी हैं और क्रोधी स्वभाव के हैं। समस्त विश्व में क्षत्रिय कुल के विद्रोही के रुप में विख्यात हैं। वे आगे, बढ़े अभिमान से अपने विषय में बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने अनेकों बार पृथ्वी को क्षत्रियों से विहीन कर इस पृथ्वी को ब्राह्मणों को दान में दिया है और अपने हाथ में धारण इस फरसे से सहस्त्रबाहु के बाहों को काट डाला है। इसलिए हे नरेश पुत्र! मेरे इस फरसे को भली भाँति देख ले। राजकुमार! तू क्यों अपने माता-पिता को सोचने पर विवश कर रहा है। मेरे इस फरसे की भयानकता गर्भ में पल रहे शिशुओं को भी नष्ट कर देती है।

प्रश्न 5 लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विशेषताएँ बताई?

उत्तर- लक्ष्मण ने वीर योद्धा की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई है-

1.   वीर पुरुष स्वयं अपनी वीरता का बखान नहीं करते अपितु वीरता पूर्ण कार्य स्वयं वीरों का बखान करते हैं।

2.   वीर पुरुष स्वयं पर कभी अभिमान नहीं करते। वीरता का व्रत धारण करने वाले वीर पुरुष धैर्यवान और क्षोभरहित होते हैं।

3.   वीर पुरुष किसी के विरुद्ध गलत शब्दों का प्रयोग नहीं करते। अर्थात् दूसरों को सदैव समान रुप से आदर व सम्मान देते हैं।

4.   वीर पुरुष दीन-हीन, ब्राह्मण व गायों, दुर्बल व्यक्तियों पर अपनी वीरता का प्रदर्शन नहीं करते हैं। उनसे हारना व उनको मारना वीर पुरुषों के लिए वीरता का प्रदर्शन न होकर पाप का भागीदार होना है।

5.   वीर पुरुषों को चाहिए कि अन्याय के विरुद्ध हमेशा निडर भाव से खड़े रहे।

6.   किसी के ललकारने पर वीर पुरुष कभी पीछे कदम नहीं रखते अर्थात् वह यह नहीं देखते कि उनके आगे कौन है वह निडरता पूर्वक उसका जवाब देते हैं।

प्रश्न 6 साहस और शक्ति के साथ विनम्रता हो तो बेहतर है। इस कथन पर अपने विचार लिखिए।

उत्तर- विनम्रता सदा साहसियों और शक्तिशालियों को ही शोभा देती है। कमजोर और कायर व्यक्ति का विनम्र होना उस का गुण नहीं होता बल्कि उसकी मजबूरी होती है। वह किसी का क्या बिगाड़ सकता है लेकिन कोई शक्तिशाली व्यक्ति अपनी शक्ति का दुरुपयोग न करके जब दीन-दुःखियों के प्रति विनम्रता का भाव प्रकट करता है तो सारे समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है। तुलसीदास जी ने कहा भी है- ‘परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा’ तथा ‘पर पीड़ा सम नहि अधमाई।’ साहस और धैर्य मन में उत्पन्न होने वाले वे भाव हैं जो शक्ति को पाकर विपरीत स्थितियों में मानव को विचलित होने से रोक लेते हैं। साहस और धैर्य तो ‘असमय के सखा’ हैं जिन्हें शक्ति की सहायता से बनाकर रखा ही जाना चाहिए पर उसके साथ विनम्रता का बना रहना आवश्यक है। विनम्र व्यक्ति ही किसी के साथ होने वाले अन्याय के विरोध में खड़ा हो सकने का साहस करता है। भगवान् विष्णु को जब भृगु ने ठोकर मारी थी और उन्होंने साहस और शक्ति रखने के बावजूद विनम्रता का प्रदर्शन किया था तभी उन्हें देवों में से सबसे बड़ा मान लिया गया था। समाल में सदा से ही माना गया है कि अशक्त और असहाय की याचनापूर्ण करुण दृष्टि से जिसका हृदय नहीं पसीजा, भूखे व्यक्ति को अपने खाली पेट पर हाथ फिराते देखकर जिसने अपने सामने रखा भोजन उसे नहीं दे दिया, अपने पड़ोसी के घर में लगी आग को देखकर उसे बुझाने के लिए वह उसमें कूद नहीं पड़ा- वह मनुष्य न होकर पशु है क्योंकि साहस और शक्ति होते हुए अन्याय का प्रतिकार न करना कायरता है। साहस और शक्ति के साथ विनम्रता मानव का सदा हित करती है। गुरु नानक देव जी ने कहा भी है-

जो प्राणी ममता तजे, लोभ, मोह, अहंकार

कह नानक आपन तरे, औरन लेत उबार।

साहस और शक्ति तो अनेक प्राणियों में होती है पर विनम्रता के अभाव में वे कभी भी समाज में प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर पाते। जब हमारे हृदय में विनम्रता का भाव हो तभी हम स्वयं को भुलाकर दूसरों के कष्टों को कम करने की बात सोचते हैं।

मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख तो बार-बार आते-जाते रहते हैं। सुख तो जल्दी से बीत जाते हैं पर दुःख की घड़ियां सुरक्षा के मुख की तरह लगातार बढ़ती जाती ही प्रतीत होती हैं। उस समय दूसरों के साथ किया गया विनम्रता का व्यवहार और महानुभूति तपती रेत पर ठंडे पानी की बूंदों के समान प्रतीत होती है। जो अपने सुखों को त्याग कर दूसरों के दुःखों में सहभागी बन जाते हैं वही अपने साहस और शक्ति का अच्छा परिचय देते हैं। वाल हिटमैन ने इसीलिए कहा है-

पीड़ित से मैं यह नहीं पूछता:

“तुम्हारा दर्द कैसा है?”

मैं स्वयं पीड़ित बन जाता हूं

और दर्द महसूस करने लगता हूं।

सच्ची मनुष्यता इसी बात में छिपी हुई है कि मनुष्य साहस और शक्ति होने के साथ विनम्रता को हमेशा महत्त्व दें। भगवान् शिव इसलिए पूजनीय हैं कि उन्होंने साहस और शक्ति से संपन्न होते हुए विनम्रता का परिचय दिया था। विषपान कर देवताओं और दानवों की उन्होंने रक्षा की थी। भर्तृहरि ने राक्षस और मनुष्य का अंतर विनम्रता के आधार पर ही किया है। जो विनम्र है वही महापुरुष है और जो अपने साहस और शक्ति को स्वार्थ के लिए प्रयोग करता है वही राक्षस है। तभी तो मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप ही आप चरे।

मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे।।

वास्तव में ही साहस और शक्ति के साथ विनम्रता ही मानव को मानव बनाती है।

प्रश्न 7 भाव स्पष्ट कीजिए-

a.   बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू||

b.   इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

c.   गाधिसू नु कह हृदय हसि मुनिहि हरियरे सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ।।

उत्तर-

a.   प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई हैं। उक्त पंक्तियों में लक्ष्मण जी द्वारा परशुराम जी के बोले हुए अपशब्दों का प्रतिउत्तर दिया गया है।

भाव- भाव यह है कि लक्ष्मण जी मुस्कराते हुए मधुर वाणी में परशुराम पर व्यंग्य कसते हुए कहते हैं कि हे मुनि आप अपने अभिमान के वश में हैं। मैं इस संसार का श्रेष्ठ योद्धा हूँ। आप मुझे बार-बार अपना फरसा दिखाकर डरा रहे हैं। आपको देखकर तो ऐसा लगता है मानो फैंक से पहाड़ उड़ाने का प्रयास कर रहे हों। अर्थात् जिस तरह एक फैंक से पहाड़ नहीं उड़ सकता उसी प्रकार मुझे बालक समझने की भूल मत किजिए कि मैं आपके इस फरसे को देखकर डर जाऊँगा।

b.   प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई हैं। उक्त पंक्तियों में लक्ष्मण जी द्वारा परशुराम जी के बोले हुए अपशब्दों का प्रतिउत्तर दिया गया है।

भाव- भाव यह है कि लक्ष्मण जी अपनी वीरता और अभिमान का परिचय देते हुए कहते हैं कि हम भी कोई कुम्हड़बतिया नहीं है जो किसी की भी तर्जनी देखकर मुरझा जाएँ। मैंने फरसे और धनुष-बाण को अच्छी तरह से देख लिया है। इसलिए ये सब आपसे अभिमान सहित कह रहा हूँ। अर्थात् हम कोमल पुष्पों की भाँति नहीं हैं जो ज़रा से छूने मात्र से ही मुरझा जाते हैं। हम बालक अवश्य हैं परन्तु फरसे और धनुष-बाण हमने भी बहुत देखे हैं इसलिए हमें नादान बालक समझने का प्रयास न करें।

c.   प्रसंग- प्रस्तुत पंक्तियाँ तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस से ली गई हैं। उक्त पंक्तियाँ में परशुराम जी द्वारा बोले गए वचनों को सुनकर विश्वामित्र मन ही मन परशुराम जी की बुद्धि और समझ पर तरस खाते हैं।

भाव- भाव यह है कि विश्वामित्र अपने हृदय में मुस्कुराते हुए परशुराम की बुद्धि पर तरस खाते हुए मन ही मन कहते हैं कि परशुराम जी को चारों ओर हरा ही हरा दिखाई दे रहा है तभी तो वह दशरथ पुत्रों को (राम व लक्ष्मण) साधारण क्षत्रिय बालकों की तरह ही ले रहे हैं। जिन्हें ये गन्ने की खाँड़ समझ रहे हैं वे तो लोहे से बनी तलवार (खड़ग) की भाँति हैं। अर्थात् वे भगवान विष्णु के रुप राम व लक्ष्मण को साधारण मानव बालकों की भाँति ले रहे हैं। वे ये नहीं जानते कि जिन्हें वह गन्ने की खाँड़ की तरह कमज़ोर समझ रहे हैं पल भर में वे इनको अपने फरसे से काट डालेंगे। यह नहीं जानते कि ये लोहे से बनी तलवार की भौति हैं। इस समय परशुराम की स्थिति सावन के अंधे की भाँति हो गई है। जिन्हें चारों ओर हरा ही हरा दिखाई दे रहा है अर्थात् उनकी समझ अभी क्रोध व अहंकार के वश में है।

प्रश्न 8 पाठ के आधार पर तुलसी के भाषा सौंदर्य पर दस पंक्तियाँ लिखिए।

उत्तर- तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखी गई है। यह काव्यांश रामचरितमानस के बालकांड से ली गई है। इसमें अवधी भाषा का शुद्ध रुप में प्रयोग देखने को मिलता है। तुलसीदास ने इसमें दोहा, छंद, चौपाई का बहुत ही सुंदर प्रयोग किया है। जिसके कारण काव्य के सौंदर्य तथा आनंद में वृद्धि हुई है और भाषा में लयबद्धता बनी रही है। तुलसीदास जी ने अलंकारो के सटीक प्रयोग से इसकी भाषा को और भी सुंदर व संगीतात्मक बना दिया है। इसकी भाषा में अनुप्रास अलंकार, रुपक अलंकार, उत्प्रेक्षा अलंकार, व पुनरुक्ति अलंकार की अधिकता मिलती है। इस काव्याँश की भाषा में व्यंग्यात्मकता का सुंदर संयोजन हुआ है।

प्रश्न 9 इस पूरे प्रसंग में व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य है। उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर- तुलसी दास हिंदी के श्रेष्ठतम भक्त कवियों में से एक है जिन्होंने गंभीरतम दार्शनिक काव्य लिखने के साथ-साथ व्यंग्य का अनूठा सौंदर्य भी प्रस्तुत किया है। इस प्रसंग में लक्ष्मण ने मुनि परशुराम की करनी और कथनी पर कटाक्ष करते हुए व्यंग्य की सहज-सुंदर अभिव्यक्ति की है। लक्ष्मण ने शिवजी के धनुष को धनुही कह कर परशुराम के अहं को चुनौती दी थी। उन्होंने व्यंग्य भरी वाणी में कहा था-

1.   बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी।

पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारु। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।

2.   इहां कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मारि जाहीं।।

देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।

लक्ष्मण ने व्यंग्य करते हुए परशुराम से कहा था कि उन्हें जो चाहे कह देना चाहिए। क्रोध रोक कर असहय दुःख नहीं सहना चाहिए। परशुराम तो मानो काल को हाँक लगा कर बार-बार बुलाते थे। भला इस संसार में कौन ऐसा था जा उनके शील को नहीं जानता था। वे तो संसार में प्रसिद थे। वे अपने माता-पिता के ऋण से मुक्ता हो चुके थे तो उन्हें अपने गुरु के ऋण से भी मुक्त हो जाना चाहिए था।

सो जनु हमरेहि माथें काढ़ा। दिन चलि गये ब्याज बड़ बाढ़ा।

अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।

वास्तव मे लक्ष्मण ने परशुराम के स्वभाव और उनके कथन के ढंग पर व्यंग्य कर अनूठे सौंदर्य की प्रस्तुति की।

प्रश्न 10 निम्नलिखित पंक्तियों में प्रयुक्त अलंकार पहचान कर लिखिए-

a.   बालकु बोलि बधौं नहि तोही।

b.   कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा।

c.   तुम्ह तो कालु हाँक जनु लावा।।

बार बार मोहि लागि बोलावा।।

d.   लखन उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु।

बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

उत्तर-

a.   अनुप्रास अलंकार- उक्त पंक्ति में 'ब' वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई है।

b.    

1.   अनुप्रास अलंकार- उक्त पंक्ति में 'क' वर्ण की एक से अधिक बार आवृत्ति हुई है।

2.   उपमा अलंकार- कोटि कुलिस सम बचनु में उपमा अलंकार है। क्योंकि परशुराम जी के एक-एक वचनों को वज्र के समान बताया गया है।

c.    

1.   उत्प्रेक्षा अलंकार- ‘काल हाँक जनु लावा’ में उत्प्रेक्षा अलंकार है। यहाँ जनु उत्प्रेक्षा का वाचक शब्द है।

2.   पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार- 'बार बार’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है। क्योंकि बार शब्द की दो बार आवृत्ति हुई पर अर्थ भिन्नता नहीं हैं।

d.    

1.   उपमा अलंकार-

·       उतर आहुति सरिस भृगुबरकोपु कृसानु में उपमा अलंकार है।

·       जल सम बचन में भी उपमा अलंकार है क्योंकि भगवान राम के मधुर वचन जल के समान कार्य रहे हैं।

2.   रुपक अलंकार- रघुकुलभानु में रुपक अलंकार है यहाँ श्री राम को रघुकुल का सूर्य कहा| गया है। श्री राम के गुणों  की समानता सूर्य से की गई है।

प्रश्न-अभ्यास प्रश्न (पृष्ठ संख्या 15-16)

प्रश्न 1 "सामाजिक जीवन में क्रोध की ज़रूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके"।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।

उत्तर- पक्ष में- वास्तव में ही क्रोध की हमारे सामाजिक जीवन में अत्यधिक जरूरत पड़ती है। यदि मनुष्य क्रोध को पूरी तरह से त्याग दे तो दूसरों के द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को वह अपने मन से कभी दूर ही न कर पाए और सदा के लिए घुट- घुट कर कष्ट उठाता रहे। सामाजिक जीवन सुखों-दुःखों से मिल कर बनता है। हमें प्राय: दुःख अपनों से ही नहीं बल्कि बाहर वालों से मिलते हैं। उस पीड़ा को तभी दूर किया जा सकता है जब हम अपने मन में छिपे भावों को क्रोध प्रकट कर के निकाल पाते हैं। जो व्यक्ति कभी क्रोध नहीं करता और जीवन में सदा सकारात्मकता हटना चाहता है लोग उसे कमजोर और कायर मानने लगते हैं। छोटे कच्चे भी क्रोध को रोकर या दुःख प्रकट कर व्यक्त करते हैं। बिना दुःख के क्रोध उत्पन्न ही नहीं होता। क्रोध में सदा बदले की भावना छिपी हुई नहीं होती बल्कि इसमें स्वरक्षा की भावना भी मिली होती है। यदि हमारा पड़ोसी रोज हमें दो-चार टेढ़ी बातें कह जाए तो उस दुःख से बचने के लिए आवश्यक है कि क्रोध करके उसे बतला दिया जाए कि उसका स्थान कौन-सा है और कहाँ है। क्रोध दूसरों में भय को उत्पन्न करता है। जिस पर क्रोध प्रकट किया जाता है यदि वह डर जाता है तो नम्र हो कर पश्चात्ताप करने लगता है तभी क्षमा का अवसर सामने आता है। क्रोध शांति भंग करता है और तत्काल दूसरे में भी क्रोध को उत्पन्न करता है।

विपक्ष में- क्रोध एक मनोविकार है जो प्राय: दुःख के कारण उत्पन्न होता है। प्राय: लोग अपनों पर अधिक क्रोध करते हैं। एक शिशु अपनी माता की आकृति से परिचित हो जाने के बाद जान जाता है कि उसे दूध उसी से प्राप्त होता है तो भूखा होने पर वह उसे देखते ही रोने लगता है और अपने कुछ क्रोध का आभास दे देता है। क्रोध चिड़चिड़ाहट को उत्पन्न करता है। प्राय: क्रोध करने वाला उस तरफ देखता है जिधर वह क्रोध करता है। क्रोध तो क्रोध को उत्पन्न करता है। यदि वह अपनी ओर देखे तो उसे क्रोध शायद आए ही नहीं। क्रोध न करने वाला व्यक्ति अपनी बुद्धि या विवेक पर नियंत्रण रखता है जिस कारण वह अनेक अनर्थों से बच जाता है। महात्मा बुद्ध, गुरु नानक देव, महात्मा गांधी आदि जैसे महापुरुषों ने अपने क्रोध पर विजय पा कर संसार भर में अपना नाम बना लिया था। क्रोध से बच कर हम अपना आत्मिक बल बढ़ा सकते हैं और आंतरिक शक्तियों को अनुकूल कार्यो की ओर लगा सकते हैं। बाल्मीकि ने क्रोध पर विजय प्राप्त कर आदि कवि होने का यश प्राप्त कर लिया था। क्रोध पर नियंत्रण पाकर वैर से बचा जा सकता है। अत: जहाँ तक संभव हो सके मनुष्य को क्रोध से बच कर जीवन-चलाने का व्यवहार करना चाहिए।

प्रश्न 2 संकलित अंश में राम का व्यवहार विनयपूर्ण और संयत है, लक्ष्मण लगातार व्यंग्य बाणों का उपयोग करते हैं और परशुराम का व्यवहार क्रोध से भरा हुआ है। आप अपने आपको इस परिस्थिति में रखकर लिखें कि आपका व्यवहार कैसा होता।

उत्तर- यदि मैं कभी ऐसी परिस्थिति में पड़ गया तो मैं यथासंभव श्री राम के समान विनयपूर्वक और संयत व्यवहार को प्रकट करूंगा क्योंकि परशुराम के समान प्रकट किए जाने वाले क्रोध से तो सामने वाले के हृदय में भी क्रोध का भाव ही भरेगा जिससे क्लेश-भाव बढ़ेगा। इससे समस्या बढ़ जाएगी। लक्ष्मण के समान लगातार व्यंग्य बाणों का उपयोग भी सामने वाले व्यक्ति को उकसायेगा जिससे उसका गुस्सा बढ़ेगा जो अंतत: झगड़े में बदल जाएगा। विनय का भाव और संयत व्यवहार किसी क्रोधी व्यक्ति के क्रोध को भी शाँत कर देने की क्षमता रखता है।

प्रश्न 3 अपने किसी परिचित या मित्र के स्वभाव की विशेषताएँ लिखिए।

उत्तर- मेरे एक मित्र हैं- डॉ. सिंगला। उनका नर्सिंग होम मेरे घर से कुछ ही दूरी पर है। उनका घर भी नर्सिंग होम का ही एक हिस्सा है जो उनके रोगियों के लिए बहुत उपयुक्त है। दिन-रात किसी भी आपातकाल में वे उनके पास मिनट में पहुँच सकते हैं। मेरे मित्र बहुत साफ-सुथरे रहते हैं। साफ-सफाई तो उनके हर काम में दिखाई देती है। चमचमाते फर्श, साफ-सुथरी दीवारें, चुस्त कर्मचारी उनके नर्सिंग होम की पहचान है जिसमें डॉ. सिंगला के स्वभाव की पहचान साफ झलकती है। वे मृदुभाषी हैं। उनके रोगियों का आधा रोग तो उनसे बातचीत कर के ही दूर हो जाता है। उन्हें पेड़-पौधों का अच्छा शौंक है। रंग-बिरंगे फूल, झाड़ियाँ और बेलें उनके घर में महकती रहती है। अपने व्यस्त समय में से भी वे कुछ घड़ियां इनके लिए निकाल लेते हैं। वे बहुत मिलन सार हैं। नगर के बहुत कम लोग ही ऐसे होंगे जो उन्हें जानते-पहचानते न हों। वे अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़ कर समाज सेवा के कार्यो में सहयोग देते रहते हैं। वे सदा सभी के सुख-दुःख में सहायता करने के लिए तैयार रहते हैं। उनका व्यक्तित्व उन्हें जानने-पहचानने वाले सभी लोगों को एक उत्साह-सा प्रदान करता है।

प्रश्न 4 दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए- इस शीर्षक को ध्यान में रखते हुए एक कहानी लिखिए।

उत्तर- घने जंगल में एक खरगोश उछलता-कूदता तेज चाल से भागा जा रहा था। वह बड़ा प्रसन्न था और मन ही मन सोच रहा था कि उस से तेज तो कोई भी नहीं भाग सकता था। सोचते-सोचते और भागते-भागते उसका ध्यान अपने आस-पास नहीं था। बिना ध्यान भागते हुए वह धीरे-धीरे चलते एक कछुए से टकरा गया। उस के पाँव पर हल्की-सी चोट लगी और वह रुक गया। वह कछुए से बोला-अरे, तुझे चलना तो आता नहीं पर फिर भी मेरे रास्ते में रुकावट बनता है।

कछुआ बोला- भगवान् ने चलने की जितनी क्षमता मुझे दी है, मेरे लिए वही काफी है। मेरा इतनी गति से ही काम चल जाता है।

खरगोश ने व्यंग्य से कहा- नहीं, नहीं। तू तो बहुत तेज भागता है। तू तो मुझे भी दौड़ में हरा सकता है-दौड़ लगाएगा मेरे साथ? कछुए ने कहा-नहीं भाई। मैं तुम्हारे सामने क्या हूँ? तुमसे दौड़ कैसे लगा सकता हूँ?

खरगोश ने उसे उकसाते हुए कहा- अरे, हिम्मत तो कर। एक ही रास्ते पर हम दोनों जा रहे हैं। चल देखते हैं कि बड़े पीपल के पास तालाब तक पहले कौन पहुँचता है। यदि तू जीत गया तो मैं तुम्हें ‘सुस्त’ कभी नहीं कहूँगा। कछुए ने धीमे स्वर में कहा-अच्छा, चल तू। मैं कोशिश करता हूँ। यह सुनते ही खरगोश तेजी से तालाब की दिशा में भागा। बिना पीछे देखे वह लगातार भागता ही गया फिर उसने पीछे मुड़ कर देखा। कछुए का कोई अता-पता नहीं था। खरगोश एक छायादार पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने सोचा कि कछुआ तो शाम होने तक उस तक नहीं पहुँच पाएगा। यदि वह इस छाया में कुछ देर सुस्ता ले तो फिर और तेज भाग सकेगा। बैठे-बैठे उसे नींद आ गई। जब उसकी आँख खुली तो हल्का-हल्का अँधेरा होने वाला था। वह तेज गीत से तालाब की ओर भागा। पर जब तालाब के किनारे पहुँचा तो कछुआ वहाँ पहले से ही पहुँच कर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। उसे देख कछुआ धीरे से मुस्कराया।

खरगोश खिसिया कर बोला- अरे, तू पहुँच गया। मेरी जरा आँख लग गई थी।

कछुआ बोला- कोई बात नहीं। ऐसा हो जाता है पर याद रखना कि तुम्हें दूसरों की क्षमताओं को कम नहीं समझना चाहिए। ईश्वर ने सबको अलग-अलग गुण दिए हैं।

प्रश्न 5 उन घटनाओं को याद करके लिखिए जब आपने अन्याय का प्रतिकार किया हो।

उत्तर- पहली घटना- मैं पिछले वर्ष से अपने स्कूल की हॉकी टीम में खेल रहा था। परसों जब शाम को मैं अभ्यास के लिए खेल के मैदान में पहुँचा तो खेल-कूद के इंचार्ज श्री गुप्ता के निकट एक अनजान लड़का हाँकी लिए हुए खड़ा था। मुझे देखते ही श्री गुप्ता ने कहा कि तुम्हारी जगह टीम में आज से यह लड़का खेलेगा। यह मेरा भतीजा है और इस स्कूल में इसने आज ही दाखिला लिया है। मैंने उनसे कहा कि पिछले वर्ष से मैं इस टीम का नियमित सदस्य हूँ और मेरा खेल भी अच्छा था। उन्होंने मुझे गुस्से से देखा और फिर कह दिया कि निर्णय का अधिकार उनका था कि कौन खेलेगा और कौन जाएगा। मैं चुपके से वहाँ से चला आया। मैं स्कूल के प्राचार्य के घर गया और उनसे बात की। उन्होंने मुझे समझाया और कहा कि वे स्कूल में श्री गुप्ता से बात कर मुझे बताएंगे। मैं नहीं जानता कि प्राचार्य महोदय की गुप्ता सर से क्या बात हुई पर सातवें पीरियड में स्कूल का चपड़ासी एक नोटिस लाया कि शाम को मुझे खेलने के लिए पहले की तरह ही पहुँचना था।

दूसरी घटना- मेरे घर के बाहर कुछ कच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। मैं उन्हें खेलता हुआ देख रहा था। जैसे ही एक लड़के ने बॉल को हिट किया वह उछल कर खिड़की के शीशे से टकराई और शीशा टूट गया। बच्चों ने शीशा टूटता देखा और वहाँ से भागे। एक छोटा लड़का वहाँ खड़ा था। वह खेल नहीं रहा था, बस खेल देख रहा था। मेरा बड़ा भाई साइकिल पर कहीं बाहर से आ रहा था। उसने लड़कों को भागते और खिड़की के टूटे शीशे को देखा। उसने झपट कर उस छोटे लड़के को पकड़ लिया। इससे पहले कि वह उस पर हाथ उठा पाता, मैंने उसे ऐसा करने से रोका क्योंकि शीशा तोड़ने में लड़के का कोई हाथ नहीं था।

प्रश्न 6 अवधी भाषा आज किन-किन क्षेत्रों में बोली जाती है?

उत्तर- आज अवधी भाषा मुख्यत: अवध में बोली जाती है। यह उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों जैसे− गोरखपुर, गोंडा, बलिया, अयोध्या आदि क्षेत्र में बोली जाती है।

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  • राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद

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